Tuesday, May 3, 2011

दिल्ली जाना - रोजमर्रा की जिन्दगी से अलग होना

दिल्ली जाने के लिए आमंत्रण और निमंत्रण दोनों ही बहुत पहले से ही मिले हुए थे। उहापोह में था कि दिल्ली जाऊँ या न जाऊँ। भीषण गर्मी में 1383 कि.मी. की यात्रा करना आसान नहीं लग रहा था इसलिए दिल्ली न जाने का विकल्प ही भारी पड़ रहा था। अन्ततः निश्चय यही कर लिया था कि न जाऊँ। किन्तु ललित शर्मा, खुशदीप सहगल और रवीन्द्र प्रभात के आग्रह ने मेरे निश्चय को अडिग न रहने दिया और सहसा दिल्ली जाने की योजना बन गई। साथ में जा रहे थे ललित शर्मा, पाबला जी, संजीव तिवारी और अल्पना देशपाण्डे जी।

चूँकि मेरा आरक्षण सबसे आखरी में हुआ था, मुझे सभी से अलग-थलग सीट मिली थी किन्तु सीट थी खिड़की के पास वाली। पूरे एक दिन और रात की यात्रा थी, शुक्रवार सुबह 7.50 बजे से आरम्भ होने वाली। यात्रा के दौरान पुस्तक पढ़ना या प्राकृतिक दृश्यों को देखना बहुत भाता है। रायपुर से डोंगरगढ़ तक मैदानी क्षेत्र है जहाँ आकर्षक प्राकृतिक दृश्य दिखाई नहीं देते इसलिए पहले ही अनेक बार पढ़ी हुई देवकीनन्दन खत्री जी की कृति "चन्द्रकान्ता सन्तति" को पुनः पढ़ता रहा। डोंगरगढ़ से आमगाँव तक पहाड़ी और जंगली क्षेत्र हैं जिसमें वसन्त ऋतु में टेसू के फूलों की भरमार रहती है किन्तु अभी पतझड़ होने के कारण केवल पत्रविहीन वृक्ष ही दिखाई दे रहे थे।


पत्रविहीन वृक्ष तो सतपुड़ा की पहाड़ी और जंगलों में भी थे किन्तु वहाँ पर लाल फूलों से लदे हुए गुलमोहर के पेड़ों की बहुलता होने के कारण आँखों को उनका बहुत ही स्वादिष्ट भोजन प्राप्त हो रहा था। पीलिमायुक्त श्वेत पत्ते वाले महुआ के पेड़ इस भोजन के साथ स्वादिष्ट चटनी का काम कर रहे थे। वापसी यात्रा सतपुड़ा वाले मार्ग न होकर एक अन्य मार्ग से थी किन्तु उस मार्ग में मनेन्द्रगढ़ की पहाड़ियों और जंगलों ने मनमोहक दृश्य प्रदान किए।


दिल्ली में आयोजन कैसा रहा, वहाँ क्या हुआ आदि के विषय में बहुत कुछ लिखा जा चुका है इसलिए मैं सिर्फ इतना ही कहूँगा कि वहाँ पर मुझे बहुत सारे ब्लोगर साथियों से मिलकर बहुत प्रसन्नता हुई। और सुनीता शानू बहन का स्नेहिल आतिथ्य तो मेरे लिए अविस्मरणीय ही बन गया। कुल मिलाकर दिल्ली जाना मेरे लिए रोजमर्रा की जिन्दगी से अलग होना ही रहा।

10 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

जंगल के चित्र बडे सजीव लग रहे हैं।

Rahul Singh said...

सुंदर चित्र.

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अवधिया जी ,

आपको मंच पर जाते हुए ही देखा ..मिलना नहीं हो पाया ...इसका अफ़सोस है ...

चित्र बहुत सुन्दर हैं ... समारोह कैसा भी रहा हो बस बहुत से ब्लॉगर्स से मिलने की खुशी ही महत्त्वपूर्ण है

ब्लॉ.ललित शर्मा said...

Au bane likh na ga.

प्रवीण पाण्डेय said...

यात्रा में पुस्तक, आनन्द ही आनन्द।

डॉ टी एस दराल said...

बहुत सुन्दर तस्वीरें दिखाई हैं अवधिया जी । आपसे मिलकर बहुत ख़ुशी हुई ।

गगन शर्मा, कुछ अलग सा said...

चले गये बहुत अच्छा किया, नहीं तो बाद में पछतावा ही होता है। ऐसे मौके कभी-कभी ही तो मिलते हैं। रोजमर्रा की खटर-पटर तो लगी ही रहेगी।
आऊंगा समय मिलते ही पूरा विवरण जानने।

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

चार दिन की जिन्दगी में "यारां नाल बहारां" ही होना चाहिये..

राज भाटिय़ा said...

बचपन मे मां ओर दा्दी से कहानिया सुनी थी जिन मे ऎसे जगलो का जिकर होता था, इन्हे देख कर तो डर लगता हे, क्या यह सब असली हे?

girish pankaj said...

jitana bhi likh, dil se likh ..badhai, shubhkamanae...