Saturday, February 28, 2015

चाणक्य नीति - अध्याय 8 (Chanakya Neeti in Hindi)


  • निम्न वर्ग के लोग धन की कामना करते हैं और मध्यम वर्ग के लोग धन तथा यश दोनों की; किन्तु उच्च वर्ग के लोग सिर्फ यश की ही कामना करते हैं क्योंकि यश धन से श्रेष्ठ है।

  • जिस प्रकार दीपक अन्धकार को खाकर कालिख बनाता है अर्थात् काली वस्तु को खाकर काली वस्तु ही बनाता है, उसी प्रकार से मनुष्य जैसा अन्न खाता है वैसा ही विचार बनाता है।

  • बुद्धिमान पुरुष के लिए यही उचित है कि वह अपना धन गुणी तथा योग्य व्यक्ति को दे, किसी अन्य को नहीं क्योंकि समुद्र का जल मेघो के मुँह में जाकर मीठा हो जाता है तथा पृथ्वी के चर-अचर जीवों को जीवनदान देकर कई करोड़ गुना होकर फिर से समुद्र में चला जाता है।

  • तत्वदर्शियों ने कहा है कि एक मलेच्छ हजारों चाण्डालों से भी अधिक नीच होता है, मलेच्छ से बढ़कर नीच अन्य कोई भी नहीं है।

  • शरी पर तेल लगाने के बाद, शरीर पर चिता का धुआँ लग जाने के बाद, स्त्री संभोग करने के बाद और बाल कटवाने के बाद मनुष्य तब तक चाण्डाल (अशुद्ध) रहता है जब तक कि वह स्नान न कर ले।

  • अपच की अवस्था में जल पीने पर जल औषधि के समान है; भोजन पच जाने के पश्चात जल पीने पर जल शक्तिवर्धक है; भोजन करते समय बीच-बीच में थोड़ा-थोड़ा जल पीने पर जल अमृत के समान है किन्तु भोजन समाप्त करने के तत्काल बाद जल पीने पर जल विष के समान है।

  • ज्ञान को कर्म का रूप न देने पर ज्ञान व्यर्थ हो जाता है; ज्ञान से हीन व्यक्ति मृतक के समान है; सेनापति न होने पर सेना नष्ट हो जाती है; और पति के बिना पत्नी पतित हो जाती है।

  • बुढ़ापे में पत्नी की मृत्यु हो जाना, धन-सम्पदा का बंधु-बांधवों के हाथों चले जाना और भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर होना व्यक्ति के लिए दुर्भाग्य है।

  • यज्ञ कर्मों को न करके केवल वेद मंत्रों का उच्चारण करना व्यर्थ है; दान किये बिना यज्ञ करना व्यर्थ है; और भाव (प्रेम) न होने पर सिद्धि व्यर्थ है।

  • सोने, चांदी, तांबे, पीतल, लकड़ी, पत्थर इत्यादि से बनी मूर्ति में देवता को विद्यमान मानकर उसकी पूजा करनी चाहिए। मनुष्य जिस भाव से पूजा करता है, ईश्वर उसे वैसी ही सिद्धि प्रदान करते हैं।

  • संयम के समान कोई तप नहीं है; संतोष के समान कोई सुख नहीं है; लोभ के समान कोई रोग नहीं है; और दया के समान कोई गुण नहीं है।

  • क्रोध साक्षात यमराज है; लोभ साक्षात वैतरणी (नरक में बहने वाली नदी) है; ज्ञान साक्षात कामधेनु है; और संतोष साक्षात नन्दनवन (देवराज इन्द्र की वाटिका) है।

  • रूप की शोभा गुण में है; कुल की शोभा शील में है; विद्या की शोभा सिद्धि में है; और धन की शोभा भोग में है।

  • गुण न होने पर रूप व्यर्थ है; दुष्ट स्वभाव होने पर कुल का नाश हो जाता है; लक्ष्य न होने पर सिद्धि व्यर्थ है; और सदुपयोग न करने पर धन व्यर्थ है।

  • भूमि के भीतर का जल पवित्र होता है; परिवार को समर्पित पतिव्रता स्त्री पवित्र होती है; लोककल्याण करने वाला राजा पवित्र होता है; और सन्तोष करने वाला ब्राह्मण पवित्र होता है।

  • असन्तोषी ब्राह्मण, सन्तोषी राजा, लज्जाशील वेश्या और निर्लज्ज कुलीन स्त्री का नाश जल्दी ही हो जाता है।

  • उच्च कुल में जन्मे अज्ञानी एवं मूर्ख का कोई सम्मान नहीं करता जबकि नीच कुल में जन्मे विद्वान का सभी देवता के समान सम्मान करते हैं।

  • विद्वान ही सर्वत्र सम्मान पाता है; विद्या ही श्रेष्ठ है; विद्या की सर्वत्र पूजा होती है।

  • विद्या से हीन सुन्दर, युवा और कुलीन व्यक्ति पलाश के फूल के समान होता है जिसमें सुन्दरता तो होती है किन्तु सुगन्ध नहीं होती।

  • मांस-मदिरा का सेवन करने वाले तथा विद्या से हीन व्यक्ति मनुष्य के रूप में पशु और धरती के लिए बोझ होते हैं।
  • यज्ञ के पश्चात भोजन न करवाने पर यज्ञ राजा को जलाता है; अशुद्ध मंत्रोच्चार करने पर यज्ञ ऋत्विज (यज्ञ सम्पन्न करने वाला ब्राह्मण) को जलाता है; और यज्ञ के पश्चात दान न करने पर यज्ञ यजमान को जलाता है।

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